प्रिय पाठक गण,
       सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
 सत्यपथ, हम किसी से कुछ भी कह लें, अपने आप से हम कुछ छुपा नहीं सकते, हम अपने जीवन की सभी राहों को स्वयं ही चुनते हैं, सत्यपथ कठिन हो सकता है।
        मगर सत्य का अवलंबन लेने वाला किसी भी कल में पराजित नहीं होता, क्योंकि सत्य चमकते सूर्य की भांति होता है, 
अंधकार कितना भी क्यों न हो, सूर्य के प्रकाश से ही वह जाता है।
        हम कितना भी ऊपरी दिखावा कर ले, हमारी हकीकत हम स्वयं तो जानते ही हैं, जैसे ही हम उस ईश्वर की अनुकंपा को
महसूस कर लेते हैं, उसकी दिव्यता का बोध हमें प्राप्त हो जाता है। हम आंतरिक रूप से उतना ही सशक्त हो जाते हैं। 
           हमारा जीवन एक यात्रा है, उतार चढ़ाव, आशा निराशा ,
अपने पराए, इस प्रकार के सम्मिश्रण से ही यह सारा संसार ओत-प्रोत है। आपको किस प्रकार से इसमें रहना है, यह केवल आपको तय करना है। 
        सत्यपथ की अपनी बाधाएं भी है, मगर अंतत वह विजयी होता ही है। धैर्य पूर्वक निरंतर चलते रहें, मार्ग में अनेक बढ़ाएं आने के बाद भी सत्य मार्ग को न छोड़ें। हमें अपना जीवन एक बार ही प्राप्त होता है, यह सुअवसर है । हम अपने जीवन को जो दिशा देना चाहे, वह दे सकते हैं। 
      मार्ग में जो बाधाएं है, वह है हमारे लालच, सफलता पाने के लिए हमें कोई मार्ग तो चुनना ही होता है।
     सत्य पथ का मार्ग चुने, मार्ग की अनेक बाधाओं के बाद भी जब हम सत्य का अवलंबन ग्रहण कर लेते हैं, तो वही सत्य पथ का मार्ग हमें दिशा दिखाता है।
      मगर आज के समय में सत्य कहां पर कहना, कैसे कहना, उसके क्या-क्या परिणाम आ सकते हैं? वह भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। सत्य का बल बहुत है, मगर हम उसे समाज के हित में कैसे परिवर्तन कर सकें, सुधार कर सके ,यह प्रयास होना चाहिये और वह समाज हित में हो , तो उसे छिपा ले, व्यक्तिगत क्षति को हम सहन कर ले, मगर सत्य को उजागर करना समाज के हित के लिए आवश्यक हो, तो अवश्य ही उसे उजागर करें। 
        जैसे डॉक्टर बीमारी बढ़ जाने पर सर्जरी करते हैं, समझ में भी जब आपराधिक गतिविधियां, भ्रष्ट आचरण, नियमों की अवहेलना हो तो , हमें उनकी परिपालन हेतु कठोर सत्य भी हो, तो उसे उजागर करना ही चाहिए।
        समय-समय पर संत व समाज सुधारक यह कार्य करते रहे हैं। श्री कृष्णा भी भगवान से गीता में स्पष्ट कह रहे हैं, जब भी पृथ्वी पर असुर, पदम व अधम व अभिमानी वढ जाते हैं, तब तब उनके दमन हेतु मैं अवतार लेता हूं, गीता धर्म ग्रंथ है, नीति का शास्त्र है वह सर्व सामान्य इसे पढ़कर प्रेरणा प्राप्त करते हैं।
      यतो धर्म  ततो जय।
यह श्री कृष्णजी का वाक्य है, अतः कर्तव्य के परिपालन में कोई भी चूक न हो, इसे हमेशा ध्यान में रखें, फिर शेष परम पिता परमात्मा पर छोड़ दे।
   विशेष:- आप जो भी कार्य करें, वह संपूर्ण ईमानदारी और निष्ठा से करें, शेष प्रभु पर छोड़े, यही निष्काम कर्म योग है। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद।

प्रिय पाठक गण,
    सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
मेरा यह ब्लॉक आपको कैसा लग रहा है, कृपया अवश्य बताएं,
प्रतिक्रिया आप ss2311970/@ g.mail. com. पर भेज सकते हैं। 
     आपकी प्रतिक्रिया से मेरा लेखन का हौसला और बढ़ेगा, 
विभिन्न विषय मेरी लेखनी में होंगे, कृपया अवश्य बताएं, आप मेरी कलम को और किन क्षेत्रों की और , जहां पर मेरी कलम के द्वारा 
जागृति व दिशा  बोध दोनों ही हो सके।
      मेरा , "घर से जुड़ाव"  मेरा स्वयं का घर तो है ही, आप सभी पाठक भी जो बड़े ही दिल से मेरी लेखनी का इंतजार करते हैं, वह भी मेरे लिए अपने घर जैसे ही है। 
        आज जब समाज में तनाव व चिंता वह भी बिना कारण के बढ़ रही है, तब मन को बहुत पीड़ा होती है, अभी एक-दो दिन पहले के अखबार में एक खबर पड़ी, नौवीं कक्षा में पढ़ने  वाला 
मासूम सा बच्चा, जो पढ़ने में भी कुशाग्र बुद्धि था, उसने आत्महत्या कर ली, ऐसी खबर मुझे विचलित करती है ।
    आज समाज में मात्र भौतिक प्रगति की और जो ध्यान अत्यधिक है, मेरा ऐसा कहना नहीं है, कि हम उसे और ध्यान न दें,
आज का युग भौतिक युग है, धन भी अनिवार्य है? 
       मगर हम मात्र भौतिक समृद्धि को आधार मानेंगे तो पारिवारिक सामाजिक मूल्य धराशाई हो जायेंगें , अतः दोनों को ही समान महत्व हमें प्रदान करना होगा। 
       हमें नई पीढ़ी को अपने घर के जो भी सदस्य हैं, उनसे जुड़ाश आपस में किस प्रकार हो, यह मंथन हम करें वह इसका निरंतर प्रयास करें, सर्वप्रथम हमें घर में सभी की समस्याओं को समझना चाहिये, उसके उपरांत ही हम उस पर कार्य भी कर सकते हैं ।
     घरके सदस्य में जुड़ाव हेतु हर माह में कोई पिकनिक, जन्मदिवस मिलकर मनाना, एक दूसरे के हितों का ध्यान रखें, अगर कोई शब्द कठोर भी हो, तो वह सब की घर में किस प्रकार से अभिवृद्धि हो, उस भाव से प्रेरित होना चाहिए। 
    परिस्थितियों तो हमेशा ही बदलती रहती है, सर्वप्रथम अपना स्वयं का नजरिया बहुत स्पष्ट रखें, वह उस पर पूर्ण ईमानदारी से कार्य भी करें, जैसे ही आप आप अपने घर के सभी सदस्यों के हित संवर्धन की और कार्य करते हैं, एक जुड़ाव घर में बनता है,
सभी के लिए सोचे, मिलकर घर में रहे, तो स्वर्ग की जो कल्पना है, वह घर में भी पूर्ण हो सकती है। आपसी सामंजस्य व विश्वास बनाए रखें। 
         अकेले चलने से परिवार को लेकर चलना ही सबसे बेहतर है, आखिर हम परिवार में एक दूसरे के सुख-दुख के साथी है।
         सबसे पहले अपने स्वयं को, फिर परिवार को सशक्त करें, फिर कमशः गली, मोहल्ला ,नगर वह राष्ट्र, सब से बाद में विश्व 
इस प्रकार का क्रमशः हम आगे बढ़े ।
       समाज ने भी हमें बहुत कुछ दिया है  , हम इसी समाज का हिस्सा है, तो समझ भी हमारा वृहत परिवार ही है।
      परिवार में आपस में जुड़ाव आवश्यक है, सभी साथ में कुछ समय अवश्य बिताएं, हंसी मजाक करें, संवाद करें, संवाद से ही सारे समाधान होते हैं। 
विशेष:- परिवार में हम सामाजिक मूल्यों की शिक्षा भी अवश्य दें, 
    हम परिवार व समाज में जैसा व्यवहार करेंगे, हमारे बच्चे वैसी
 ही शिक्षा ग्रहण करेंगे। अतः सर्वप्रथम हमें अपने व्यवहार में
सुधार करना होगा। 
आपकाअपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद

प्रिय पाठक गण,
          सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
       हम सभी उसी एक परमपिता के ही अंश है, वही हमें समय अनुसार प्रेरणा प्रदान करते हैं, समय चक्र बदलने में समय भी नहीं लगता, परिवर्तन की नींव धीरे-धीरे डलने लगती है, जब सब और घर अंधेरा हो, तब वासुदेव कृष्ण की शरणागति हमें राह दिखाती है। उसकी अनन्य शरणागति को प्राप्त करने के बाद वे पिता परमेश्वर ही हमें प्रेरणा प्रदान करते हैं, वे अपने धर्म पर अडिग रहते हुए अपने बचाव के लिए भी प्रेरणा देते हैं।
        जो भी भक्त उनकी अन्य शरणागति को ग्रहण कर लेता है,
भक्ति अर्जुन सिंह शरणागति को लेकर फिर वह सारे ही संशयो से पार हो जाता है। अपने आचरण की दृढ़ता को अक्षुण्ण  रखकर,
भगवान वासुदेव को हृदय से नमन कर वह शंखनाद करता हुआ 
अपने जीवन में सदा विजय को ग्रहण करता है। 
       समय के अनुसार वह कदम उठाता जाता है, मधुर मुस्कान 
का आश्रय लेकर वह अपने लक्ष्य का संधान करता हुआ उनकी कृपा को प्राप्त करके अपने लक्ष्यों की ओर निरंतर बढता ही जाता है।
         जब भी किसी प्रकार का संकट जीवन में आये, भगवान श्रीकृष्ण की अन्य शरणागति से ही उसे पार किया जा सकता है। 
        वे लौकिक व पारलौकिक दोनों ही प्रकार की उन्नति को देने वाले हैं, इस प्रकार से जब हम प्रभु की शरणागति को ग्रहण करते हैं, तब किसी भी अन्य की शरणागति कि हमें आवश्यकता ही नहीं होती है। 
      अपने आप ही वह सारे समीकरणों को उनकी कृपा से उलट कर स्थितियों को अपने भक्तों के पक्ष में कर देता है, संशय का विनाश करने में केवल मेरे प्रभु  श्रीकृष्ण ही समर्थ है, उनके जैसा 
अन्य कोई भी नहीं, जैसे ही हम उनकी अनन्य शरणागति में आ जाते हैं, मार्ग भी वही दिखलाने वाले हैं, कृपा भी वही करने वाले हैं, मार्ग की बढ़ाएं चाहे जितनी भी हो, केवल उनकी अनन्य शरण मात्र से ही वे हट जाती है। 
     धैर्य पूर्वक स्थितियों को हम समझे, जिस प्रकार भी हो, लक्ष्य का भेदन हम करें। समय अनुसार क्या रणनीति अपनाना आवश्यक है? इस समझे और आगे बढ़ते जाएं, रणनीतिक  तैयारी अवश्य करें, किसी भी संघर्ष में आपका रणनीतिक कौशल बहुत मायने रखता है। 
      जब प्रभु का वरद हस्त शीश पर हो , कोई भी समस्या बड़ी नहीं होती, सब समाधान निकल ही आते हैं।
     अपने कदमों को उनकी शरणागति के आश्रय मैं हम उठाते
 जाये, साहस पूर्वक अपनी बात को सभी के समक्ष जब हम रखते हैं, तो परिणाम भी आश्चर्यजनक रूप से आते हैं।
      रणनीतिक चातुर्य को प्रथम पायदान पर रखें, उसका बुद्धिमानी पूर्वक उपयोग करें, जैसे ही घटनाक्रमों की आहट हमें मिले, संयम पूर्वक स्थितियों को परखे , अपना मनोबल हमेशा उच्च बनाए रखें, तात्कालिक समझ व दूरदष्टि अवश्य रखें,
वर्तमान समय का सही सदुपयोग वह आगे क्या करना है?
उसका अवलोकन भी करते रहे। 
     अपने आसपास के वातावरण को सही तरीके से समझे,
पूर्ण सजग दृष्टि रखें, सत्य बल का साथ कभी ना छोड़े, नीतिबान लोगों को एकजुट करें , अपने पुण्य प्रताप को जगाये है, ईश्वरीय कृपा का आश्रय ले, शंखनाद करें, विजय श्री का वरण करे।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद।
प्रिय पाठक गण,
     सादर वंदन, 
हम सभी का जीवन एक यात्रा है, इस यात्रा मे हमें कई प्रकार के अनुभव से गुजरते हुए इस यात्रा को करना होता है । हमारी इस यात्रा के मार्ग में हमें हमारा स्वार्थ व परमार्थ दोनों में एक संतुलन बनाए रखना होता है ।
           सभी के जीवन के अपने अनुभव है, क्योंकि सब की यात्रा भी तो अपनी स्वयं की यात्रा है, इस यात्रा के दौरान कई बार हमें स्वार्थ भी घेरता  है, परमार्थ भी हमें पुकारता है, द्वंद हमेशा मानव मन में चलता ही है, क्या करें? क्या न करें, अंततः पूर्ण साहस करके जब हम किसी भी लक्ष्य को धारण कर ले, उसे लक्ष्य पर हम अपनी संपूर्ण ऊर्जा को लगा दें, चाहे फिर वह परमार्थिक हो या सांसारिक, पूर्ण ऊर्जावान होकर, संकल्पित होकर जब हम आगे बढ़ने लगते हैं तो मार्ग की बाधाएं ही हमारा मार्ग प्रशस्त करती नजर आती है।
         मानवीय जीवन हम जी रहे हो, और हमारे जीवन में संघर्ष उपस्थिति ही न हो, ऐसा तो संभव ही नहीं, पर जो भी संघर्ष हमारे जीवन में आते हैं, वह एक परिवर्तन की दस्तक अवश्य लाते हैं, बगैर किसी भय के, अपने चुने हुए मार्ग पर दृढ़तापूर्वक चलना, 
यही मानवीय धर्म है, केवल स्वार्थ वश हम किसी भी कार्य को न करें, तो सृष्टि भी हमारी सहायता अवश्य करती है।
        किस समय क्या घटेगा?  यह तो केवल परमात्मा जानते हैं, 
हमारा कर्म केवल पूर्ण सजगता से अपने जीवन को जीने का प्रयास होना चाहिए।
       अगर हमारा कोई भी कर्म जो हम करने जा रहे है, वह हमें भीतर से एक आनंद की, उल्लास की अनुभूति करवा रहा है, तो निश्चित ही वह एक श्रेष्ठ कर्म है, परमेश्वर ने हमें सामान शक्ति, समान अवसर, आगे बढ़ने की योग्यता, सभी प्रदान किए हैं। 
         मगर द्वंद की स्थिति होने के कारण हम उससे वंचित रह जाते हैं। 
      हमारे मनोभावों को हम पूर्ण ध्यान पूर्वक, होश पूर्वक देखने का अभ्यास करें, इससे हमें यह परिणाम प्राप्त होगा कि स्वयं का दोष कहां है? वह हमें दिखेगा व हम उसका परिवर्तन कर सकेंगे ।
       एक विशिष्ट ऊर्जा हम सभी के भीतर होती है, यह विशिष्ट ऊर्जा ही हमारे सारे जीवन व जीवन चक्र का मूल है, यहां हर व्यक्ति में भिन्नता है, तो सभी की मूल ऊर्जा भी भिन्न होगी। 
      हम अपने भीतर छिपी उस विशिष्ट ऊर्जा को पहचाने वह पूर्ण ईमानदारी पूर्वक उस पर कार्य करें, 
       पूर्ण ईमानदारी से मंथन करने पर हम पाएंगे कि वह विशिष्ट ऊर्जा ही हमारे जीवन को संभाले हए हैं 
    हम सभी में प्रकृति ने कुछ ऐसा विशिष्ट गुण तो दिया है, जो अन्य में नहीं, उसे ढूंढे, तराशे, जितना आप मौलिक गुण को 
 तराशेगे, उतने ही सुंदर परिणाम की हमें प्राप्ति होगी।
विशेष:- अपने भीतर छिपी अंदर न शक्ति को हम स्वयं पहचाने वह उस पर कार्य करें, अंततः हम उसे विशिष्ट गुण के कारण सदैव रक्षित होंगे। 
सब में मौलिक गुण अलग-अलग ही है, हमें प्रकृति में जो हषप, गुण दिया है, वह किसी अन्य को नहीं। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद। 



प्रिय पाठक गण,
   सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
 हम सभी में गुण  -अवगुण होते ही हैं, मगर हमें अपने गुणों पर कार्य करना चाहिए, अच्छे गुणों को अगर हम स्थान देंगे तो वह शक्तिशाली होंगे, अवगुण स्वयं ही नष्ट हो जाएंगे। 
        सराहना, किसी भी व्यक्ति को हम चाहे पहले ही बार मिले हो, मुस्कुरा कर उसका स्वागत करें। 
         एक मुस्कुराहट आपकी मित्रता में अभिवृद्धि करती है, 
खुशनुमा रहे, विपरीत परिस्थितियों में और अधिक जिंदा दिल बने, एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक बने, सदैव सभी से मुस्कुरा कर ही मिलें।
       आपकी सकारात्मक सोच  सामने जो भी है, उनमें भी सकारात्मक का संचार करेंगी।
       अपना सर्वश्रेष्ठ विचार सामने लायें, उसे पर पूर्ण आत्मविश्वास से कार्य करें। 
      जो भी आपसे जुड़े, उसकी सराहना आप करें, पर वह झूठी सराहना ना हो, उसके किसी विशिष्ट गुण की जो उसमें वास्तव में विद्यमान है, उसकी सराहना अवश्य करें। फिर देखिए, आप जहां भी जाएंगे, आपके सकारात्मक दृष्टिकोण के कारण बदलाव होने लगेगा।
     आप स्वयं सकारात्मक रहे, सकारात्मक सोचें, किसी भी प्रकार की हीनता स्वयं में ना आने दे, आत्मविश्वासी रहे, अपने आचरण में दृढ़ता रखें, अनावश्यक सलाह किसी की न सुने न दे।
        हर व्यक्ति विशेष में कुछ न कुछ मौलिक गुण प्रकृति ने दिया है, वह जो उसका मौलिक गुण है, वही उसकी ताकत है, जैसे कोई व्यक्ति मिलनसार है, तो उसे व्यक्ति की मिलन सारिता उसका व्यक्तिगत गुणधर्म है, उसे ईश्वर ने इतना सुंदर, अद्भुत गुण दिया है, उसे कभी भी ना के त्यागे, वह आपकी मूल ताकत है। 
        इसी प्रकार सभी व्यक्तियों में कोई न कोई मौलिक गुण अवश्य ही होता है, हमें किसी के दोषो पर नजर न रख कर 
गुणो पर अधिक नजर रखना चाहिए, नहीं तो सामने वाले के दोष  उससे भी अधिक आपका नुकसान कर सकते हैं, वह तो कुछ समय के लिए ही दोष के साथ है, आप उसके दोषो  को अपने भीतर पहुंचा रहे हैं, अत्यधिक आलोचना से बचे ।
      अपने परदोष चिंतन से स्वयं को भी कुंठित कर लिया है, सदैव प्रसन्न चित्त रहे, परमात्मा का सुमिरन करें, उसे भी सराहे,
कितनी सुंदर दुनिया बनाई है, झरने , तालाब, वृक्ष , पहाड़, आकर्षक फुल व विभिन्न फल, औषधि, ऐसी तमाम चीज कुदरत ने हमे उपहार में दी है, जो चहचाहते पक्षी, खिल खिलाते बच्चे, सहजता से जीने वाले साधारण मनुष्य, सारी सृष्टि ही सुंदर है,
बस हम अपनी दृष्टि को बदलते जाएं , सभी की सराहना करें,
सराहना करना एक ऐसा प्रयोग है, जो आपको लोगों के हृदय के करीब लाता है। 
      जीवन में सराहना अवश्य करें, बेवजह किसी की भी आलोचना न करें, एक संतुलित व्यवहार को जीवन में स्थान दें। 
हमारे आसपास के जो भी व्यक्ति हैं, उन्हें धन्यवाद दे, सहयोग के लिए, दिल से धन्यवाद दें ।
     जब हम किसी भी व्यक्ति की सराहना करते हैं, तो उससे उसका आत्म बल बढ़ता है, अपना स्वयं का आत्म बल व दूसरों का आत्म बल बढ़ाएं।
     यही जीवन को सुखद बनाने की, भविष्य को संवारने की अद्भुत कला  है, लोगों की आलोचना के साथ सराहना करना भी सीखिए। 
विशेष:- हमें अपने आसपास के लोगों में जो विशिष्ट गुण है, उसकी सराहना अवश्य करना चाहिए , और उन्हें उसके उस विशिष्ट गुण पर कार्य करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद
प्रिय पाठक गण,
      सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, आप सभी को प्रवाह की इस मंगल मयी यात्रा का आनंद आ रहा है या नहीं।
         आज हम बात करेंगे, "स्थित प्रज्ञ" , स्थित प्रज्ञ शब्द का जो वास्तविक अर्थ है, वह  है अपनी प्रज्ञा  में स्थित होते हैं, आंतरिक चेतना में होते हैं, साक्षी भाव में होते हैं।
      जो भी घट रहा है, वह प्रकृति द्वारा रचित मंगल विधान है, क्रिया की प्रतिक्रिया समय आने पर अवश्य होती है।
         स्थित प्रज्ञ होने पर आपके निर्णय सही होने लगते हैं।
क्योंकि वह निर्णय  राग व द्वेष से परे होकर, तात्कालिक परिस्थितियों के संपूर्ण अध्ययन के बाद लिये जाते हैं।
       इस प्रकार से  जब हम समग्र अध्ययन करते हैं, तो हमें ज्ञात होता है, कौन सी दिशा  में हमें चलना चाहिये? 
        सामाजिक हित संवर्धन किस प्रकार हो? किस प्रकार से हम सामाजिक ताने -बाने को हम स्वस्थ रखें, अपने विचार, कार्य  व आचरण द्वारा , भले ही हम कुछ भी कहे, सबसे अधिक प्रभावी हमारा आचरण हीं होता है।
      समाज में रहते हुए सामाजिक सद्भावना किस प्रकार से बड़े, 
उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि हो  , ऐसे प्रयास अवश्य ही किये जाना चाहिये, हम इसे अपना सामाजिक कर्तव्य बोध समझे व अनजान ना बने रहे।
      स्थित प्रज्ञ का मतलब यह नहीं कि हम केवल देखते रहे, 
स्थित प्रज्ञ यानी स्थितियों को साक्षी भाव से देखने के उपरांत किसी निर्णय पर पहुंचना, यह आवश्यक है। 
       अपनी प्रज्ञा में स्थित होकर हम अपना व्यक्तिगत धर्म जो परिवार का पालन पोषण है, वह तो करें ही, साथ ही सामाजिक धर्म या दायित्व, उनकी भी अन देखी ना करें, अपने आप को सही मार्ग पर रखते हुए समाज को भी दिशा प्रदान करें। 
     सामाजिक नियमों को शक्ति प्रदान करना, जो सामाजिकता के विरुद्ध है, उनकी अवहेलना व जो सज्जन है ,उनको संगठित करना व उससे प्राप्त शक्ति का सदुपयोग सामाजिक हित  में 
करना, यह आंतरिक भाव सदैव जागृत रहना यह बोध हमें होना ही चाहिए। 
     इसका उदाहरण हमें भागवत गीता में प्राप्त हो जाएगा, जब श्री कृष्णा अर्जुन  को कहते हैं कि तू विषाद करने के योग्य नहीं है, 
अपना धनुष बाण उठा और युद्ध कर, वे उसे अपने मूल धर्म  का निर्वहन करने के लिए प्रेरित करते हैं। इस प्रकार हम परिवार में , समाज में स्थित प्रज्ञ होकर , अपनी मूल 
प्रज्ञा में स्थित होकर, तब सारे कार्यों को अंजाम दे। 
     जब हम स्थित प्रज्ञ होते हैं, तब हमारी प्रज्ञा सही दिशा की और  कार्य करती है, सारी स्थिति बिल्कुल साफ दिखाई देती हैं। संपूर्ण परिदृश्य का सही अवलोकन हम कर पाते हैं।

प्रिय पाठक गण,
   सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
प्रवाह की इस मंगलमय यात्रा में आप सभी का स्वागत है।
      समय नित्य परिवर्तनशील है, वह निरंतर बदलता रहता है, 
उसकी गति तो निरंतर प्रवाहमान हैं, मगर मनुष्य को  यह बोध
अवश्य होना चाहिये की समय अपने साथ होने पर हमारा आचरण किस प्रकार से होना चाहिये, प्रकृति ने अगर हमें शक्ति प्रदान की है, आंतरिक ऊर्जा हमारी जागृत की है, तो समझ के प्रति हमारे जो भी नैतिक ,सामाजिक दायित्व है, उनका निर्वहन हम पूर्ण ईमानदारी से वह उस परमपिता को साक्षी रखकर करें।
     इस संबंध में हमें इतिहास से यह सबक सीखना जरूरी है, क्या हो सकता है?  उसे सजगता पूर्वक हम देखें, महाभारत में 
भीष्म पितामह जो प्रतिज्ञा लेते हैं, कि मैं राज सिंहासन पर बैठे व्यक्ति के प्रति समर्पित हूं, उसने महाभारत का युद्ध रचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वह उसे राज कुल में सबसे भाइयों वयोवृद्ध थे, उनकी भूमिका राज सिंहासन की गरिमा के प्रति होना चाहिये थी, राज सिंहासन पर बैठे किसी व्यक्ति -विशेष के प्रति 
 नहीं ।
         अगर उसे समय वे साहसपूर्वक अपने निर्णय की  सही समीक्षा कर पाते तो महाभारत न होती, गुरु द्रोण, गुरु कृपाचार्य 
जैसे विद्वान भी जिस सभा में थे, महात्मा  विदुर भी थे, जिस सभा में इतने विद्वान थे, सत्य के अनुगामी न बन सके, और महाभारत हुई ।
       भगवान श्री कृष्णा स्वयं अपना संदेश पांडवों की ओर से लेकर गये, मात्र पांच गांव पांडवों के लिए ताकि न्याय हो सके, 
अभिमन्यु दुर्योधन ने उसे अस्वीकार कर दिया।
     हम सभी के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं, और आयेंगे,
जब हमें जीवन में निर्णय करना होता है। 
    भरी सभा में सत्य कहने के लिये गीताजी में श्री कृष्ण जो संवाद सभा में कहते हैं, उसे गौर से समझिये, वे राज्यसभा में रहते हैं कि युद्ध तो अनिवार्य सा प्रतीत हो रहा है, मगर एक अंतिम
प्रस्ताव पांडवों कीऔर से लाया हूं, उन्हें युद्ध नही, पांच गांव प्रदान कर दीजिये, जिससे उनका भरण पोषण हो सके, अहंकार से युक्त
होने के कारण दुर्योधन इस प्रस्ताव पर मना कर देता है।
    राज्यसभा में भीष्म पितामह मौन रहते हैं, गुरु द्रोण, गुरु कृपाचार्य वह राजा धृतराष्ट्र सभी मूक दर्शक बने सका समर्थन कर देते हैं, केवल महात्मा विदुर श्री कृष्ण के पक्ष में खड़े होते हैं।
वे महाराज धृतराष्ट्र से भी कहते हैं, महाराज इस अन्याय को रोकिये, मगर राजा उनकी नहीं सुनते।
      भगवान श्रीकृष्ण गीता में यही संदेश देते हैं, कोशिश करते हैं, 
महाभारत टल जाये, मगर सभासदों का मौन, जो उसे समय मुखर हो जाते, तुम महाभारत नहीं होती।
    इसी प्रकार हम सभी का जीवन है, हमारे मन में कई बार संशय की स्थिति उत्पन्न होती है, क्या करें क्या नहीं? गीताजी जैसे सर्वकालिक ग्रंथ का आश्रय ले, ध्यान पूर्वक चिंतन एवं मनन करें। 
      अपने दायित्व का,  कर्तव्य का हमें बोध होगा।, सामाजिक दायित्व के निर्वहन कि जब  जब बारी आती है,   हमें श्री कृष्ण
वह महात्मा विदुर जैसे बौध से निर्णय करना चाहिये।
     इतिहास में ही उदाहरण अनगिनत है, कालचक्र हमें मौका प्रदान करता है, हम श्री कृष्ण की भांति, महात्मा विदुर की भांति
निर्णय करें। 
      हमारे जीवन में भी बाधाएं आती ही है, मगर हमें निर्णय तो करना होते हैं।
    कालचक्र हमें सिखाता है ‍ग्रंथ ,संत व आंतरिक चेतना का आश्रय ले।