प्रिय पाठक गण,
   सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
उस परमपिता को भी मंगल प्रणाम, आज प्रवाह में हम बात करेंगे, लयबद्धता, यह संपूर्ण सृष्टि एक दूसरे से लयबद्ध है, यहां कुछ भी अकारण नहीं होता, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, यह संपूर्ण ब्रह्मांड एक दूसरे पर निर्भर है, इसमें कोई स्थिर है ,व कोई चलता है, मगर उनका अनुपात तय है, सब अपनी-अपनी सीमाओं में अपना कार्य करते हैं, सूर्य नित्य प्रतिदिन जिस प्रकार से आता है, वह तय है, चंद्रमा 15 दिन बढ़ता है, 15 दिन  घटता है, से कृमश: हम शुक्ल पक्ष और कृष्ण के नाम से जानते हैं, इसी प्रकार मंगल ,बुध, राहू, केतु, गुरु, शुक्र 
इत्यादि सब ग्रह समय-समय पर अपना प्रभाव दिखलाते हैं, यह जो हमारा शरीर है, यह भी संपूर्ण ब्रह्मांड का एक छोटा सा अंश है, हम चाह कर भी ब्रह्मांड किसी गतिविधि से अलग नहीं हो सकते, यह संपूर्ण ब्रह्मांड एक दूसरे से
ओत-प्रोत है, भले ही हमें इसकी लयबद्धता का पूर्ण ज्ञान न हो, मगर इसके अपने नियम है अवश्य, और  यह उन्हीं नियमों पर कार्य करता है।
     हम कितना भी प्रयत्न कर ले, वह ब्रह्मांड अपने हिसाब से ही कार्य करता है, कब किस समय क्या होना है, किस प्रकार से घटना है, वह सब हमारी सोच से भी परे है, कुछ विधान हम नहीं जानते, मगर वह होता उसी लयबद्धता से है, सृष्टि का यह कम आदिकाल से चलता आ रहा है, हमारा संपूर्ण शरीर भी इसी ब्रह्मांड का एक छोटा सा अंग है, अगर हम अपने शरीर पर ठीक ढंग से कार्य करें, तो चुकी हम इसी ब्रह्मांड का एक छोटा सा हिस्सा है, अगर हम अपने शरीर के परिचालन को सीख जायें तो हम स्वयं अपने आप को जानने लगेंगे, जैसे ही हम अपने भीतर की और अग्रसर होंगे, एक दिव्य चेतना हमारे भीतर घटती है, और वह हमें उस संपूर्ण ब्रह्मांड से एकाकार व लयबद्ध कर देती है,
जैसे ही हम उसे दिव्य चेतना के संपर्क में 
आते है, उसे सृष्टि की लय से हमारी लय मिल
जाती है, फिर सहज ही हमारे सारे कार्य होने 
लगते हैं।
अगर हम बहुत गौर से चीजों को समझें, तो जब हम कोई पुराना गीत संगीत सुनते हैं, तो हमें उसकी लयबद्धता का आभास होता है।
क्योंकि वह गीत अपनी संपूर्ण चेतना में रचे गये हैं। यह संपूर्ण संसार एक लयबद्धता के अनुसार ही कार्य करता है, हम चाह कर भी इसके नियमों को बदल नहीं सकते, यही इसकी खास बात है, तो कोशिश करिये हम इस लयबद्धता से एकाकार हो सके। आप और हम सभी कोशिश करें इससे तादात्म्य स्थापित कर सके।
विशेष:- हम चाहे ना चाहे, यह संपूर्ण ब्रह्मांड एक नियम के तहत चलता है, इसकी अपनी लय है, इसका एक अपना तरीका है, जो प्राचीन वैज्ञानिक या ऋषि हुए, उन्होंने अपने गहन अनुसंधान से जो भी जाना वह हमें दिया। इस बारे में प्रकृति से बड़ा कोई शिक्षक नहीं, आप देखिये किस प्रकार वह अपने नियमों पर कार्य करती है, वह किसी से भी भेदभाव नहीं करती, और यही उसकी लयबद्धता है।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद 
वंदे मातरम।
प्रिय पाठक गण,
     सादर नमन, 
   आप सभी को मंगल प्रणाम, 
प्रवाह की इस अद्भुत यात्रा में आप सभी का
स्वागत है, ईश्वर कहे, निराकार कहे, जो भी हम उसे नाम दे, क्या कहे यह ब्रह्मांड स्वचालित है, यह अपने स्वयं के नियम पर कार्य करता है, तमाम तरह की जो धारणाएं हैं।
       एक बात आप सभी को कहना चाहता हूं, मनुष्य को आंतरिक रूप से क्या प्रिय है?
प्रकृति, सौंदर्य,  आनंद व मानसिक शांति वह जीवन में उपभोग के लिए भौतिक साधनों का होना, जिनका वह जीवन में उपभोग कर सके, पर जरा हम सभी मिलकर यह सोचे कि आज हम यंत्रवत जीवन नहीं जी रहे हैं, या फिर यह कहे, कोई भी व्यक्ति कुछ भी विचार हमारे मन में डाल देता है, और हम उधर ही चल देते हैं। 
हमारा स्वयं का इस बारे में क्या सोच है? हमारे अपने अनुभव में हमने क्या पाया है? 
     इसका उत्तर बाद ही सीधा सा है, हम अपना अहित नहीं चाहते, तो फिर हम सामने वाले के अहित की कल्पना भी क्यों करते हैं? 
       क्योंकि अगर हम किसी भी भगवान को नहीं मानते, किसी अध्यक्ष शक्ति को भी नहीं मानते हैं कि यह संपूर्ण ब्रह्मांड स्वचालित है, फिर भी हमें तरंग या स्पंदन या हमारे भीतर के जो भी भाव है, क्या उन पर कार्य नहीं करना चाहिये, क्योंकि जो हम सोचते हैं, अंततः जाते भी हम इस दिशा की और है।
      मानसिक शांति पाने का सबसे बेहतर तरीका क्या हो सकता है? हम जहां पर भी रहते हैं, जिस घर, परिवार व समाज का हम हिस्सा है, उसकी बेहतरीन के लिए हम अपनी ओर से क्या प्रयास कर रहे हैं, वह बहुत ही महत्वपूर्ण है।
      हमेशा समाज में दो तरह की मनोवृति के लोग होते हैं, एक सृजनात्मक व दूसरे विध्वंसक, बस यही दो विचारधारा है मुख्य है, 
जो भी समन्वयवादी विचार वाले हैं, वे सृजनात्मक होंगे, जो समन्मेंवय  नहीं करना जानते, वह विध्वंसक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं, एक व्यक्ति के तौर पर, एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हमें यह तो समझना ही होगा। 
        अत्यधिक भौतिकवाद या भोगविलास ने जो हमसे ले लिया है, वह हमारी आंतरिक चेतना, हमारी आंतरिक चेतना अगर जागृत है, तो हम किसी भी कम को करने से पहले उसे कार्य को, जो हम कर रहे हैं उसके परिणाम क्या होंगे, इस पर अवश्य विचार करें। 
      यह आवश्यक जानने की कोशिश करें, जो भी कदम हमारा है, वह मनुष्यता की ओर है या नहीं? यह सवाल हमें अपने आप से अवश्य पूछना चाहिये, अगर आपका स्वभाव
समन्वय का है, तो आप विपरीत सोच को भी सही तरीके से समझेंगे व इससे जीवन में आसानी आयेगी।
     जीवन हमें जीना ही है, मगर हम किस प्रकार समाज में घर में ,परिवार में ,समाज में रहते हैं, वही हमारे व्यक्तित्व को प्रभावशाली 
बनाता है।
     कोशिश करें, हमसे कोई आहत न हो, परमेश्वर का आंतरिक सुमिरन अवश्य चलने दे, आपकी जी भी पंथ में आस्था है, उसे आप माने। 
     मस्तिष्क को सदैव खुला रखे, सभी के लिए कार्य करें, ईश्वर या वह शक्ति जो संपूर्ण ब्रह्मांड को चलाती है, हमारा मानसिक दृष्टिकोण ही हमें ऊपर उठाता है, मनुष्यता के नाते अपने कार्यकलाप को हम आपको हम स्वयं परखे, उत्तर आपको अपने भीतर से ही प्राप्त होगा, अन्यत्रनहीं। 
संवेदनशील होना ही मनुष्यता की सबसे पहली निशानी है, यंत्रों का उपयोग करते-करते हम यंत्र ना हो, परिवार में किस प्रकार खुशहाली हो, समाज में किस प्रकार सभी खुशहाल हो, ऐसे निरंतर प्रयत्न को हम यथा शक्ति अपने जीवन में आचरण में लाये।
विशेष:- हम अपने आप को जाने, हम क्या करना चाहते हैं?  मनुष्यता के नाते हम क्या 
बेहतर कर सकते हैं, वह अवश्य देखें। मनुष्यता की पहली सीढ़ी समभाव ही हैं, प्रकृति भी हमें अपने आचरण हमें यही सीख देती है।
आपकाअपना 
सुनीलशर्मा 
जयभारत 
जय हिंद 
वंदे मातरम।

प्रिय पाठक गण,
     सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
    आज प्रवाह की इस यात्रा में आपसे साझा करना चाहता हूं, कुछ विचार या प्रयोग, जो मैंने स्वयं अनुभूत किये हैं, जिनका मुझे जीवन में लाभ प्राप्त हुआ है, इसीलिए आप सभी से इसे साझा कर रहा हूं।
     हम सभी का जन्म कहां होगा, क्या हम तय करत हैं? अगर नहीं, तो फिर कुछ तो ऐसा अवश्य है, जो हमें नहीं पता, द्वितीय हमारी मृत्यु कब व कैसे होगी, हम साधारण जो जीवन जी रहे हैं? हम इसके बारे में क्या जानते हैं? 
     अब कुछ बातें जीवन पर, क्या हम अपनी संपत्ति को अपने साथ ले जा सकते हैं? जवाब होगा नहीं।
    आप कहेंगे धन तो जीवन के लिये आवश्यक है, आज के भौतिक युग में इसके बिना काम नहीं होता, यह भी आज का एक कड़वा सत्य ही है। 
       मगर क्या केवल भौतिक समृद्धि से ही 
हमारा जीवन समृद्ध होगा। 
      हमारा जीवन एक यात्रा है, तो हमें सभी आयामों को पार करना पड़ेगा। 
     भौतिक, आध्यात्मिक, स्वास्थ्य, मान सम्मान, आंतरिक शांति, वैचारिक दृढ़ता, परिषदों के अनुरूप क्या आवश्यक है? इसकी गहरी समझ, अच्छी संतान, अच्छा परिवार, समझदार पत्नी। 
     यह सब अगर हमारे जीवन में है, तो सही अर्थों में हम समृद्ध हैं, तभी हम कह सकते हैं कि हम समृद्ध हैं। 
    तो आप अपने जीवन को स्वयं देखें, इनमें से अगर अधिकतम आपके पास है, तो आप एक समृद्धशाली इंसान है , हमारे सारे कार्य अगर हो रहे हैं? कोई बड़ी बाधा हमारे जीवन में नहीं आ रही है? तो हमारा जीवन आंतरिक शांति से तो भरपूर है। 
     कुछ सूत्र जीवन के,
स्वयं पर पूर्ण ध्यान दें, अपने स्वास्थ्य को सुरक्षित रखें, दूसरा हमारे जीवन में हम जो भी धन कमा रहे हैं, वह बुद्धिमत्ता पूर्वक खर्च करें, स्वयं का भरण पोषण, उचित समय पर दान, भविष्य की जरूरते, इन सभी का शुरुआत से ही जीवन में उचित समन्वय रखें। 
         अपने निजी अनुभवों को अपनी शक्ति बनाये, न कि कमजोरी।
       एक राह बंद होती है, तो दूसरी अवश्य खुलती है, मेहनत से कभी न घबराये, चाहे आप नौकरी कर रहे हो या व्यवसाय। 
        नई बातें हमेशा सीखें, सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण हमेशा जीवन में रखें।
     हमारा जीवन एक प्रयोग है, अच्छा प्रयोग 
जब भी करना हो, अवश्य करें। हमें भीतर से उसकी प्रेरणा प्राप्त होगी। 
     कोई भी कौशल जीवन में अवश्य सीखें, 
वह आपकी अपनी निजी संपत्ति हो जायेगी,
धन भौतिक है, मगर हम जब कोई भी कौशल सीखते हैं, वह हमेशा हमारी ताकत बनेगा। 
स्वयं खुश रहें, आनंदित रहे, तभी तो आसपास का वातावरण भी खुशनुमा होगा। 
       आंतरिक शांति पर सर्वप्रथम ध्यान दें, 
अगर हम यह कर पाये तो हमारे अधिकतर निर्णय सही साबित होंगे, क्योंकि आंतरिक शांति होने पर हम उस निर्णय को सही तरीके से समझ सकेंगे, हम यह निर्णय क्यों ले रहे हैं? इसके क्या परिणाम होंगे?
     यह हमेशा हमें जांचते रहना चाहिये,
हमेशा दीर्घकालिक रणनीति जीवन में बनाये,
साथ ही तात्कालिक परिस्थितियों में भी क्या अधिक सही है, सतत अध्ययन करते रहे, इससे आपका निर्णय अधिकतम सही दिशा में होंगे।
    हमेशा प्राथमिकता क्या है? यह हमें अवश्य समझना चाहिये, उम्र बढ़ने पर हमारी प्राथमिकता में परिवर्तन भी आता है, सकारात्मक सोचे, विपरीत परिस्थितियों में धैर्य रखें। 
     अपने मित्र कौन है? यह अवश्य हमें पता हो, कौन हितेषी ? व्यवहारिक जीवन में कभी भी हम इस पहलू को अनदेखा न करें।
      अपने जीवन की इस अद्भुत यात्रा का आनंद उठायें, आपस में मतभिन्नता होने पर भी जिस जगह आप निवास करते हैं, उन सभी का सर्वाधिक हित किस प्रकार संभव है, 
इस नीति पर कार्य करें। 
विशेष:- जीवन में अनुभव भी लोगों की सलाह सुने, उस पर गौर करें, अगर उनकी सलाह अच्छी है? और वह हमारी परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त है, तब तो ठीक है, अगर नहीं है, तू विनम्रता पूर्वक सुनने के बाद फिर 
निर्णय करें। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय हिंद, 
जय भारत, 
वंदे मातरम।

प्रिय पाठक गण,
सादर नमन, 
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
आज विजयदशमी का पावन पर्व है, इस पर्व का ऐतिहासिक महत्व इस बात में है, कि इसी दिन प्रभु श्री राम ने दशानन यानी रावण पर विजय प्राप्त की थी, इस प्रकार अगर हम देखें, तो यह पर्व अधर्म पर धर्म की जीत का महत्व भी बताता है, अगर हम अपने जीवन में सत्य का आचरण करें, तो वह ईश्वर सदैव हमारे साथ ही होगा, मगर हम केवल कहने मात्र से नहीं, जितना अधिक मात्रा में हमसे हो सके, उतना सत्य का आचरण अगर हम करते है, तो परमात्मा की शक्ति सदैव हमारे साथ होगी, सत्य कहने वाला व्यक्ति भले ही अकेला भी हो, मगर उसके सत्य आचरण की शक्ति बहुत अधिक होती है, हमें परमपिता परमेश्वर से नित्य प्रार्थना करनी चाहिये, वह हमें सत्य मार्ग पर अडिग रखें, हमारी सोच सदैव सकारात्मक हो, कितनी भी  विपरीत परिस्थितियों हमारे सामने हो, मगर सत्य मार्ग का अवलंबन हम कभी न छोड़े, अंततः वह सत्य का मार्ग हमारी राह प्रशस्त करेगा व जीवन में आने वाली किसी भी प्रकार की कठिनाई से हमें लड़ने का साहस प्रदान करेगा, हमारा जीवन जब तक है, विभिन्न प्रकार के संघर्ष हमारे जीवन में अनिवार्यतः आते ही है, हम अपने संकल्प पर दृढ़ रहे,
और परमपिता परमेश्वर से अपने संकल्प पर दृढ़ रहने का नित्य निरंतर आशीर्वाद लेते रहे, 
उसकी कृपा  निरंतर प्राप्त करें, संकल्प बली होने से हमारे व्यक्तित्व में भी निखार आता है, 
कोशिश करें हम जो भी कहे ,सत्य कहें उसका अनुसरण भी करें, क्योंकि सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति की ख्याति भी नित्य प्रति बढ़ती जाती है, जो अपने संपूर्ण जीवन को 
उस परमपिता परमेश्वर की शरण में रहकर जीता है, उनकी नित्य अनुकंपा को सदैव याद करता है, उसका वर्तमान में भी क्षरण नहीं होता, युगों युगों तक उसके आचरण के हम गीत गाते हैं, हम सभी का जन्म ईश्वरीय कृपा की देन हैं, मानव जीवन अनेक योनियों के बाद हमें प्राप्त होता है, इस अमूल्य मानव जीवन को हम सकारात्मक भाव से जिये,
हमारी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका स्वयं व अपने परिवार के प्रति होती है, राष्ट्र व विश्व भी उसके बाद ही आते हैं, सबसे पहले स्वयं का सुधार, 
फिर परिवार का सुधार, फिर गली, मोहल्ले राष्ट्र व विश्व, इस प्रकार क्रमशः हम अपने जीवन को नित्य अगले पायदान पर चलाते जाये, विषम से विषम परिस्थिति भी अगर आप संकल्प के धनी है, तो विपरीत परिस्थितियों में भी आप विजयी होंगे, अपने सत्य धर्म को कभी न त्यागे, क्योंकि सत्य आचरण से बड़ा कोई शुद्ध नियम है ही नहीं,
जो भी व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है, 
उसकी भले लोग लाख बुराई भी करें, मगर वे भी जानते हैं, की सत्य हमें कहां से प्राप्त होगा, हां ,मगर सत्य का अनुसरण करते समय हमारा भाव किस प्रकार का है, उसका हेतु क्या है, वह भी एक महत्वपूर्ण व विचारणीय विषय है, अगर हमारे सत्य से समाज का हित होता है, तो वह सत्य निश्चित  ही अनुकरणीय है, आप सभी को विजयादशमी पर्व की अनंत हार्दिक शुभकामनाएं, परमपिता परमेश्वर सभी के जीवन में मांगल्य लाये।
इन्हीं शुभ  व सुंदर भावो के साथ पुनः आप सभी को विजयादशमी पर्व की अनंत हार्दिक शुभकामनाएं।
आपका अपना, 
सुनील शर्मा, 
जय भारत 
जय हिंद, 
वंदे मातरम।



प्रिय पाठक गण,
   सादर नमन, 
आप सभी को मेरी यह वैचारिक यात्रा कैसी लग रही है ,अवश्य बतायें।
    जीवन एक अविराम प्रक्रिया है, नित्य नूतन सीखना, अनेक अनुभवों से गुजरना।
    जैसी हम बाहर के जगत की यात्रा करते हैं,
इस प्रकार हम अपने भीतर के जगत की जब जरूरत महसूस करें, हमारे स्वयं की कोई संभावना छोटी सी भी, जो हमारे आंतरिक पथ को आलोक प्रदान करें, इस पर हमें चलना चाहिये।
     नित्य नए अनुभव हमें आते हैं, खुश रहें, आप खुश वह प्रसन्न चित्त रहेंगे, तो सभी आपसे मिलकर प्रसन्न होंगे।
     सर्वप्रथम हमें खुश वह प्रसन्न रहने का अभ्यास करना चाहिये।
      प्रसन्न चित्तता ही सर्वोपरि भक्ति है, आंतरिक भावों को हम जितना परिशुद्ध करते चलेंगे , उतना ही अधिक हम शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करेंगे।
      जितना परिशुद्ध हम भीतर से होते जायेंगे, हमारा आनंद बढ़ने लगेंगा।
        नित्य परमपिता परमेश्वर, अपने माता-पिता, गुरुजनों व आत्मीय वृद्ध जनों को हम याद करते हुए, उनके प्रति जीवन में सदा कृतज्ञ रहे।
        खास तौर से हमारे माता-पिता, जिन्होंने अपने ऊपर कई बाधाये झेली, मगर संतान की खुशी हेतु वह अपनी कई इच्छाओं का भी दमन करते रहे, माता-पिता हमेशा संतान की खुशहाली के लिए ही कार्य करते हैं। 
      वृद्ध जनों के पास अपने जीवन के अनुभव होते हैं।
     युवाओं को भी चाहिये, बुजुर्गों के पास कुछ समय अवश्य बिताये, अनेक प्रकार की समस्याओं का समाधान उनकी अनुभवी आंखें परख लेती है, वह अपने जीवन के अनुभवों से मिली सीख हमें प्रदान करते हैं।
नई मंजिलें हमारा रास्ता देख रही है। 
    प्रसन्न चित्रता का भाव हृदय में रखें, नित्य ऊर्जा उस परमपिता से प्राप्त करें, उनकी मंगरिक शरण में आते ही समस्त भव बाधाएं दूर होने लगती है, भीतर की दिव्य दृष्टि जागृत होने से व्यक्तित्व निखरने लगता है।
      मनोबल बढ़ जाता हैं, जितनी हमारी आंतरिक दृढ़ता  हमारी अपने लक्ष्य के प्रति होगी, उतना ही जल्दी हम उसे प्राप्त करने में सक्षम होंगे। 
     नित्य प्रति उन प्रभुके चरणों मे वंदन करें,
उन्हें साक्षी मान अपने जीवन की इस यात्रा को पूर्ण करें।
    उन्हें धन्यवाद दे, जो उन्होंने हमें प्रदान किया है, उन्हें सब पता है, हमारे दिल में क्या
 है? वह कभी अपने भक्तों का क्षरण नहीं होने देते, जो परम विनय पूर्वक उनकी कृपा में आता है, वह सहज ही इस भवसागर को पार कर लेता है।
      परम चेतना उसे मार्ग दिखाती है, सहज रूप से अपने आप कार्य होने लगते हैं, उसकी कृपा बरसने लगती है।
    सबका मंगल हो, सब पर मेरे प्रभु की कृपा बरसे, उसे विराट की झलक की कुछ अंशों में 
मुझ पर कृपा हुई है, उतने से ही मैं परम निहाल हो गया हूं।
     जो आत्म तत्व को जानने वाले महापुरुष है , वे कैसे होंगे, इसकी तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते। 
      विज्ञान भी  ऊर्जा को मानता है, वह हमारा सनातन या वैदिक धर्म भी ऊर्जा को ही मानता है।
    ऊर्जा का संग्रहण हमारे भीतर है, वह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण हम उसे ऊर्जा को दिशा कौन सी प्रदान कर रहे हैं, वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। 
विशेष:-  परमात्मा से हम उस ऊर्जा शक्ति को प्राप्त कर ऊर्जा को भीतर संग्रहित रखें, वह उस ऊर्जा का उपयोग हम स्वयं, परिवार, वह समाज के कल्याण हेतु खर्च करें। 
        स्वयं जागृत हो, फिर परिवार, गली, मोहल्ला, देश व विश्व इस प्रकार क्रमशः हम वृद्धि करें, निरंतर सकारात्मक अभिवृद्धि हो, 
यही हार्दिक शुभकामनाएं। 
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद।

प्रिय पाठक गण,
     सादर नमन, 
 आज प्रवाह में मेरा विषय है, गरिमापूर्ण जीवन, हम सभी का जीवन अनेक प्रकार के उतार-चढ़ाव से गुजरता है, कई बार कोई हमारा अपमान भी कर देता है, उस समय भी अगर हम अपने धैर्य को कायम रख सके, तो हम मानवीय गरिमा को छू लेंगे, आज के समय में सबसे बड़ा महत्व वाणी का ही है, हम अपनी वाणी से क्या कहते हैं, उस पर अमल करने की कितनी कोशिश करते हैं,
यह अधिक महत्वपूर्ण है, माना कि हम अपने जीवन में सभी की आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतर सकते, मगर विनम्रता पूर्वक हम किसी कार्य के लिए मना भी कर सकते हैं, जो संभव नहीं हो, 
हमारी विवेकशीलता पर बहुत सी बातें बनती व बिगड़ती है,
हमें वार्तालाप करते समय यह बोध तो अवश्य होना ही चाहिये।
        जीवन एक दिन में पूरा नहीं होता, हमें अपने दैनिक जीवन में वार्तालाप की महत्ता को समझना चाहिये, आप अपनी जगह  कितने भी सही हो, अगर वार्तालाप का गुण आप में नहीं है तो समस्या और अधिक बढ  सकती है, हम प्रतिदिन अपने दैनिक जीवन में बहुत-सी बातें सीखते भी हैं, कई बार हम वार्तालाप की महत्ता को अनदेखा कर देते हैं, हमें  वार्तालाप करते समय 
सामने वाले को भी सुनना होता है।
         कई बार हमें आपसी वार्तालाप में बहुत ही सावधानी रखने की जरूरत होती है, जब हम वार्तालाप करते हैं, तब सुना भी जाना चाहिये वह बोला भी जाना चाहिये, कभी भी संवाद एक तरफा नहीं हो सकता, एक तरफा संवाद होने पर वह अपना अर्थ ही खो देगा, जो अपने वार्तालाप की महत्ता को सही तरीके से समझते
हैं, वह कभी भी अपने मूल से हटते नहीं है।
        हम अपने जीवन में चाहे कितनी ही उपलब्धियां हासिल कर ले, मगर अगर हमारी वाणी सही नहीं है, तो वह वाणी हमारे सारे कार्य बिगाड़ भी सकती है, आपका वार्तालाप जितनी कुशलतापूर्वक होगा, उतना ही वह असर कारक भी होगा, हमें यह भी देखना होता है की जिससे हम वार्तालाप कर रहे हैं, हम उनके बराबरी के स्तर पर जाकर उनसे वार्तालाप करें, तभी कुछ सही 
नतीजे की संभावना होती है, जीवन तो हम सभी जी ही रहे हैं , मगर अपनी गरिमा को जितना संभव हो सके, हमें बचाना चाहिये
विशेष:- गरिमा पूर्ण जीवन जीने के लिये हमें साधनों के साथ
         व्यवहार कुशलता का ज्ञान होना भी आवश्यक है, गरिमा पूर्ण जीवन जीने के लिये हमें साधनों के अलावा कुछ अच्छे वह मजबूत रिश्ते भी चाहिये।
आपकाअपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद
प्रिय पाठक गण,
    सादर नमन,
आप सभी को मंगल प्रणाम, 
मुझे पूर्ण आशा है आप सभी को मेरे विभिन्न विषयों पर लिखे गए लेख जरूर पसंद आ रहे होंगे। 
प्रवाह की इस मंगल में यात्रा में आज मेरा लेख है आंतरिक वह बाह्म समृद्धि पर। 
        मनुष्य शुरू से ही प्रयोग धर्मी रहा है,
वह निरंतर आगे से आगे जो भी खोज होती है, वह उसकी इसी जिज्ञासा का ही परिणाम है, वैज्ञानिक अन्वेषण होते ही रहेंगे, मनुष्य जाति निरंतर नए सोपानों को छूयेगी, मगर इन सब में एक बात जो विचारणीय  है, वह यह है,
हम संपूर्ण विश्व को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं, भौतिक साधनों की तो हमारे यहां कोई कमी नहीं, फिर क्या कारण है, कि मनुष्य इतना अशांत है, निश्चित ही संपूर्ण मनुष्य जाति को एक अवलोकन की जरूरत है, और इस बारे में हमें हमारी संस्कृति से सशक्त कोई और माध्यम मिल ही नहीं सकता, हमारी संस्कृति में सब कुछ बहुत स्पष्ट है, सृष्टि के संपूर्ण पांचों तत्व  पृथ्वी जल,अग्नि,वायु और 
आकाश, वह मनुष्य जिससे जीवित है ,वह  प्राण तत्व, इस प्रकार से मनुष्य का शरीर निर्मित हुआ।
        हमारी आंतरिक समृद्धि हमारे आंतरिक विचारों पर निर्भर है, वह बाह्य भौतिक समृद्धि हमारे जो भी हम व्यवसाय या नौकरी करते हैं, उसे पर पूर्ण रूपेण निर्भर है।
       आज  हम एक समाज के भीतर रहते हैं,
तो जो समाज में घट रहा है, उसे पूर्ण रूप से अनजान भी नहीं रह सकते, मेरे विचार में 
हमारी भारतीय संस्कृति का यह सूत्र वाक्य है, "सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित दुख भाग भवेत",
इतनी उदार मना संस्कृति हमारी है, जो विश्व में सबके कल्याण की बात करती है, फिर भारतीय समाज में इतनी अधिक विषम परिस्थितियों क्यों है?
           इसका एकमात्र जवाब यह है, हमारे कथनी व करनी में अंतर, अगर हम जो कह रहे हैं, वह कर नहीं रहे, तो फिर बेहतर परिणाम की उम्मीद हम किस प्रकार कर 
 सकते हैं। इस समाज में रहने के कारण कहीं ना कहीं हम भी इसके लिए उत्तरदायी हैं,
हम भ्रष्टाचार की घटनाओं को शुरुआत से नजरअंदाज करते आ रहे हैं, और वह एक भीषण रूप ले चुकी है, जब रोग भीषण हो जाये, तब एकमात्र उपाय शल्य चिकित्सा बचता है।
       हम हम आगे कैसे समाज में जी रहे हैं,
जहां पर विभिन्न विचारधाराएं हैं, हमें निश्चित ही भौतिकवाद कितना आवश्यक है, इस पर गौर तो करना ही होगा, इसके लिए हमें विभिन्न माध्यमों से लोगों को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना चाहिये, क्योंकि नौकरियों की संख्या इतनी अधिक नहीं, जितनी मात्रा में हमारी जनसंख्या है, मेरे मौलिक विचार में हमें स्वरोजगार की जो परिकल्पना है, वह स्थानीय स्तर पर जो भी रोजगार हो सकते हैं, उन्हें हम बढ़ावा दे, तो इस समस्या का बहुत कुछ समाधान हो सकता है।
       इसके साथ ही हम सभी को इस बात के लिए भी प्रेरित करें यह समाज सभी से मिलकर बना है, तो इसमें जो विकृतियों आयी
 है, उसके लिए थोड़े-थोड़े दोषी तो सभी हैं,
यह हम सभी के लिए आत्म मंथन का समय है, जब हमें एक सिक्के के दोनों ही पहलू आंतरिक व बाहृय समृद्धि पर समान रूप से विचार करना होगा ।
      आंतरिक समृद्धि वह है, जो हमें मानसिक उत्साह प्रदान करती है, जीवन जीने का नित्य उत्साह, उत्सव पूर्वक हम अपने कार्यों को करें, यह दृष्टिकोण में भीतर से समृद्ध करता है। जीवन में भौतिक संपदा भी आवश्यक है, मगर हम जब आंतरिक समृद्धि व बाह्य समृद्धि दोनों का संतुलन सीख जाते हैं, तू जीवन की सही राह को हम समझ लेते हैं,
हम जितनी अच्छी प्रकार इस बात को समझेंगे , उतना ही हमारा स्वयं का जीवन तो सुखद होगा ही, हम औरों को भी इसके लिये प्रेरित कर सकेंगे।
    तो लिए हम आंतरिक व बाह्य दोनों प्रकार की समृद्धि को प्राप्त करें, वह संतुलन द्वारा 
हमारे जीवन की धारा में निरंतर प्रवाहमान रहकर कार्य करें।
समय-समय पर अपनी गतिविधियों का आकलन करें, हम अपने लिये, उसके बाद कुछ समय समाज के लिए आवश्यक निकालें,
वह चाहे अच्छे विचार के रूप में हो, आप धन दे सके, समय दे सके, जिस प्रकार से भी आप सकारात्मक रूप से समाज को सहयोग कर सके, वह अवश्य करें। 
विशेष:- हमारे जीवन को हम सुगम व सरल,
आंतरिक  व बाह्य दोनों प्रकार की समृद्धि से भरपूर बना सकते हैं, यह पूर्णतः हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर है, आप सभी का पुनः धन्यवाद, आपकी और मेरी यह साझा  वैचारिक यात्रा इसी प्रकार चलती रहे।
आपका अपना 
सुनील शर्मा 
जय भारत 
जय हिंद 
हम फिर मिलेंगे, अगले लेख में।