प्रवाह मे आज सर्वधर्म सम भाव पर चर्चा, प्राचीन हिंदू संस्कृति का सूत्र वाक्य
इस श्लोक मे सभी के सुखी होने की कामना या प्रार्थना कह ले ,वह भाव इसमें झलकता है।
दया धर्म का मूल है व अभिमान धर्म को नष्ट करने वाला है। प्राणी पर दया करना ही दरअसल विश्व धर्म है। आज जब सारे धर्म वस्तुत: कहा जाये तो विश्व धर्म तो केवल एक है "मानवीयता" मनुष्य का कल्याण जिसमे मिहित हो उसका मार्ग चाहे जो कोई भी हो अन्ततः वह उसी और जाता है। इसे इस प्रकार समझिए "भगवान " "गॉड" " अल्लाह " "एक ओंकार सतनाम "इस प्रकार विभिन्न रूपो में अभिव्यक्ति तो उसी एक की ही है।
वस्तुतः रूप भेद व नाम भेद है। जैसे स्वर्ण से आभूषण बनाये जाते है ,वह है तो सोना, पर अलग अलग रूपो में वह कही हार, कही पर अंगूठी, कही कानो में पहनने वाली बाली के रूप में है लेकिन वह सभी है स्वर्ण से बने हुए।
इसी प्रकार संपुर्ण मानव जाती उसी एक परम के विभिन्न अंश है, परन्तु कही ज्ञान अहंकार ,कही परम्परा का अहंकार के कारण उसकी जो झलक है वह नही मिल पाती। संपुर्ण तो केवल एक वही है,हम तो केवल उसके अंश मात्र है, परन्तु कही परम्परा में कही नियमो में, कही पर अभिमान से आछंदित होने से हम उसकी सही कृपा का आकलन नहीं कर पाते। वह सत्य तो सदा सर्वदा सर्वकाल में सभी को सहज ही उपलब्ध है। परंतु अभिमान से युक्त होने से हम उसके प्रसन्नता या प्रसाद का अनुभव नहीं कर पाते हैं।
किसी भी प्रकार अहंकार, चाहे वह कितना भी सुक्ष्म क्यों न हो, उस प्रभु मिलन की प्राप्ति की सबसे बड़ी बाधा है।
आशा है मेरे लेख में लिखें वक्तव्य पर आप भी गौर करेंगे और पाएंगे कि वस्तुतः वह एक ही है, बस उसको याद करने की, पुकारने की पद्धतियां भिन्न है। जैसे एक ही गंतव्य पर हम कई साधनों से पहुंच सकते हैं रेलगाड़ी यानी स्थल मार्ग ,वायुयान यानी आकाश मार्ग ,जहाज यानि जल मार्ग जाना किसी भी एक ही जगह पर है , पर अगर वह स्थल या जगह इन तीनों प्रकार के साधनों से पहुंचा जा सकता है तो फिर जिसे जो भी मार्ग उपयुक्त लगे ,वह चयन कर सकता है।
प्रवाह में आज इतना ही
आपका अपना
"सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे संतु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ,मा काश्चिद दुःख भाग भवेत् "
image source: therockofisrael.org |
इस श्लोक मे सभी के सुखी होने की कामना या प्रार्थना कह ले ,वह भाव इसमें झलकता है।
"दया धर्म को मूल है, पाप मूल अभिमान "
दया धर्म का मूल है व अभिमान धर्म को नष्ट करने वाला है। प्राणी पर दया करना ही दरअसल विश्व धर्म है। आज जब सारे धर्म वस्तुत: कहा जाये तो विश्व धर्म तो केवल एक है "मानवीयता" मनुष्य का कल्याण जिसमे मिहित हो उसका मार्ग चाहे जो कोई भी हो अन्ततः वह उसी और जाता है। इसे इस प्रकार समझिए "भगवान " "गॉड" " अल्लाह " "एक ओंकार सतनाम "इस प्रकार विभिन्न रूपो में अभिव्यक्ति तो उसी एक की ही है।
वस्तुतः रूप भेद व नाम भेद है। जैसे स्वर्ण से आभूषण बनाये जाते है ,वह है तो सोना, पर अलग अलग रूपो में वह कही हार, कही पर अंगूठी, कही कानो में पहनने वाली बाली के रूप में है लेकिन वह सभी है स्वर्ण से बने हुए।
इसी प्रकार संपुर्ण मानव जाती उसी एक परम के विभिन्न अंश है, परन्तु कही ज्ञान अहंकार ,कही परम्परा का अहंकार के कारण उसकी जो झलक है वह नही मिल पाती। संपुर्ण तो केवल एक वही है,हम तो केवल उसके अंश मात्र है, परन्तु कही परम्परा में कही नियमो में, कही पर अभिमान से आछंदित होने से हम उसकी सही कृपा का आकलन नहीं कर पाते। वह सत्य तो सदा सर्वदा सर्वकाल में सभी को सहज ही उपलब्ध है। परंतु अभिमान से युक्त होने से हम उसके प्रसन्नता या प्रसाद का अनुभव नहीं कर पाते हैं।
किसी भी प्रकार अहंकार, चाहे वह कितना भी सुक्ष्म क्यों न हो, उस प्रभु मिलन की प्राप्ति की सबसे बड़ी बाधा है।
आशा है मेरे लेख में लिखें वक्तव्य पर आप भी गौर करेंगे और पाएंगे कि वस्तुतः वह एक ही है, बस उसको याद करने की, पुकारने की पद्धतियां भिन्न है। जैसे एक ही गंतव्य पर हम कई साधनों से पहुंच सकते हैं रेलगाड़ी यानी स्थल मार्ग ,वायुयान यानी आकाश मार्ग ,जहाज यानि जल मार्ग जाना किसी भी एक ही जगह पर है , पर अगर वह स्थल या जगह इन तीनों प्रकार के साधनों से पहुंचा जा सकता है तो फिर जिसे जो भी मार्ग उपयुक्त लगे ,वह चयन कर सकता है।
प्रवाह में आज इतना ही
आपका अपना
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