दर्पण

दर्पण यानी शीशा, जिसमें हम अपना चेहरा देखते हैं, पर क्या कभी भीतरी तौर पर अपने आपको परखते हैं, हम कहां गलती कर रहे हैं, क्या करना है क्या नहीं करना है।




हम और लोगों की देखादेखी चल पड़ते हैं, क्या हमारा स्वयं का कोई सोच है अथवा नहीं, ईमानदारी की बात ले, क्या औरों के बजाए हम स्वयं के प्रति ईमानदार हैं, अपनी परवाह करते हैं, अगर हम अपनी ही  परवाह नहीं करते हैं तो औरों के प्रति सजग कैसे हो सकते हैं।


बड़ा ही विचारणीय तथ्य है कि हम आज अन्य व्यक्तियों की भाँति केवल कुछ सोचे समझे बगैर अनुसरण करते जाते हैं , जिसका भुगतान हमें स्वयं को बाद में करना होता है।


सोच समझ कर अपने चरित्र को गढे क्योंकि उससे ही आपकी सफलता या असफलता जुड़ी हुई है। अपने प्रत्येक कर्म के प्रति सजग रहना चाहिए। दर्पण का असली महत्व हमें तभी समझ में आएगा, जब हम अपने भीतरी व बाहरी व्यक्तित्व में समन्वय स्थापित करें, अपनी कमियों को खोजें उन्हें सुधारें अपने व्यक्तित्व की अच्छी बातों को तराशे व कमियों को धीरे-धीरे हटाते जाए।


एक बेहतर व्यक्ति बनने की दिशा में यह पहला कदम बहुत ही महत्वपूर्ण है की आप अपने स्वयं के महत्व को रेखांकित करें। जब आप अपना स्वयं का महत्व समझेंगे तभी आप औरों का भी महत्व समझ पाएँगे। जो व्यक्ति अपने गुणों को तराशता जाता है, वह धीरे-धीरे अपने व्यक्तित्व में सुधार करता जाता है व उसे समाज में स्थापित होने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

प्रवाह में आज इतना ही

शेष फिर

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