प्रिय पाठकगण सुप्रभात,
इस सृष्टि में हम सभी एक दूसरे पर आश्रित है, यही इस सृष्टि का मूल आधार है। हम एक दूसरे के साथ जीवन को जीते हुए समग्र चेतना के साथ जब जीते हैं, तब हम जीवन को सही अर्थों में जान पाते हैं अन्यथा जीवन एक भार ही बन कर रह जाता है।
हम परिवार व समाज में कई लोगों से जुड़े होते हैं। हमें पारिवारिक व सामाजिक दोनों ही दायित्व निभाने होते हैं। अनेक प्रकार की सुविधाओं का हमें सामना करना पड़ता है। युक्तियुक्तकरण उपाय द्वारा ही हम उस दिशा में जा सकते हैं। परमपिता परमेश्वर की यह सृष्टि बड़ी ही अनूठी है, इसमें सभी प्रकार के प्राणी होते हैं, मनुष्य भी उन्हीं में से एक है।
जो अपने आप में कई दिव्यताओ के साथ ही जन्म लेता है, परंतु अपने स्वार्थ व लालच के वशीभूत होकर वह अपनी दिव्य चेतना व शक्तियों को खो बैठता है।
स्थूल से सूक्ष्म में देख लेना भी एक कला है, जो स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा कर लेता है उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं होता।
मनुष्य को सहअस्तित्व के साथ जब जीना आ जाता है, दरअसल तब वह मानवता की दिशा में अग्रसर हो पाता है।
उस परमात्मा की दिव्य शरण में रह कर वह अपने उत्तम जीवन का निर्माण करता जाता है।
आप देखिए प्रकृति की संरचना कैसी अद्भुत है। पेड़-पौधे हम पर वह हम पेड़ पौधों पर निर्भर हैं (जीवन या प्राणवायू हेतु)
हमें वृक्षों से ऑक्सीजन प्राप्त होती है व हम जो कार्बन डाइऑक्साइड सांसों द्वारा छोड़ते हैं, वह उनका भोजन होती है।
इसी प्रकार हमें अपने दैनंदिन जीवन में भी माता पिता, भाई बहनों का सहयोग प्राप्त होता है, क्या बगैर सहयोग के आप जीवन की कल्पना कर सकते हैं, कदापि नहीं। हम समाज में सहअस्तित्व के रूप में ही रह सकते हैं।
आपका अपना,
सुनील शर्मा।
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