प्रिय पाठक वृंद,
सादर नमन,
सर्वप्रथम आप सभी का दिन शुभ व मंगलमय हो, इन्हीं भाव के साथ आगे अंतर्यात्रा का द्वितीय भाग आप सभी के सामने प्रस्तुत कर रहा हूं, मां सरस्वती की अनुकंपा व गुरुवर के आशीर्वाद से ही इन लेखों को लिख पाता हूं।
आप सभी का आशीर्वाद व आप जो भी मेरे लेख पढ़ रहे हैं, वह सभी पाठकगण मेरी शक्ति है, वह मुझे प्रेरणा प्रदान करते हैं कि आगे से आगे और लेख लिख सकूं। पुनः विषय पर आते हैं, अंतर्यात्रा प्रथम में अपने आप को, अपने लक्ष्य को पहचानने की बात कही थी।
आइए विचार श्रंखला को आगे बढ़ाते हैं, सोचे मानव जीवन जो हमें प्राप्त हुआ है, वह कितना सुंदर है क्या आपने चिड़िया को चहचहाते सुना है, तितलियां कैसे उन्मुक्त भाव से पुष्प के मकरंद का पान करती है, क्या कभी हमने वन्यजीवों का अध्ययन किया है, जब इन वन्यजीवों की भी पूर्ति हुआ करती है, क्या ईश्वर या प्रकृति इन्हे इनका अंश प्रदान नहीं करती, फिर क्यों मानव हो कर भी हम मनुष्यता का इतना सा भी पाठ नहीं सीख पाते हैं कि लौटकर तो वही आता है, जो हम प्रदान करते हैं।
प्रकृति के इस अनूठे रहस्य को समझने के लिए हम एक उदाहरण से समझना होगा जैसे एक बीज में ही वृक्ष छुपा है वैसे ही हम सभी में बीज रूप में कहीं ना कहीं मानव व महामानव बनने की पूर्णता विद्यमान है। आवश्यकता हमारे भीतर के उन सोए हुए स्पंदनों को जगाने की, उस परमपिता से प्रार्थना करने की कि वह मनुष्य मात्र में उसके देवत्व को जगा दे। देव कौन है, जो देते हैं तो हम भी देव बने, उसका अनुसरण करें।
विचार से, भाव से, धन से जिस प्रकार भी हो अच्छे भाव संवर्धन को जीवन में स्थान देना प्रारंभ करें। शुरुआत में आपको यह प्रक्रिया थोड़ी सी कठिन अवश्य लगेगी क्योंकि हमारा लालच इस प्रक्रिया में बाधा बनकर उपस्थित होता है।
रुक कर अपने आप को पुनः देखें कहां-कहां हमसे जन्मदिन जीवन में चूक हो रही है। समय को खोना उन चूको में से सबसे बड़ी चूक है। गया हुआ कल लौटाने की क्षमता किसी में भी नहीं है।आत्मावलोकन प्रारंभ करें, जीवन को एक व्यवस्था प्रदान करें यदि आपका जीवन एक व्यवस्थित क्रम से चलता है तो आप तो खुश रहेंगे। आपके साथ रहने वाले भी खुश रहेंगे, अस्तव्यस्त विचार व जीवन शैली हमें भी अस्तव्यस्त कर देती है।
पुनः जो भी मेरे लेख पढ़ रहे हैं युवा, बुजुर्ग, प्रशासनिक, अधिकारी, राजनेता, बुद्धिजीवी सभी से विनम्र निवेदन है, बगैर किसी पूर्वाग्रह के मेरे लेखों को पढ़े व विचार अवश्य करें।
समाज को हमारी देन क्या है, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से जो हो रहा है, उसके प्रति क्या हमारी सतर्क दृष्टि है अथवा नहीं। क्या संस्कृति की जड़े हम अनजाने में ही कमजोर तो नहीं कर रहे हैं।
भावी पीढ़ी को हमारी संस्कृति के मूल भाव "सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित् दुख भाग भवेत।" से उनका परिचय कराना हमारा कर्त्तव्य नहीं हैं, उन्हें धन के अलावा एक अच्छा विश्व नागरिक बनने के लिए प्रेरणा प्रदान करना हमारा दायित्व नहीं है।
शेष अगली कड़ी में।
विशेष = अंतर्यात्रा के इस धारा प्रवाह लेख में मेरा जो भी ज्ञान, निजी अनुभव व हमारी सांस्कृतिक ग्रंथों से जो मुझे अनुभूति होती है, वह आप सभी को पहुंचाना मुझे समाज के प्रति मेरा नैतिक दायित्व जान पड़ता है। आप भी जब अंतर्यात्रा करेंगे, जीवन के मूल उद्देश्य से आप अवश्य परिचित हो जाएंगे। पुनः धन्यवाद आप सभी पाठक गणों का, अभिवादन सभी का जो मुझे निरंतर ब्लॉक पर पढ़ रहे हैं।
आपका अपना,
सुनील शर्मा।
सादर नमन,
सर्वप्रथम आप सभी का दिन शुभ व मंगलमय हो, इन्हीं भाव के साथ आगे अंतर्यात्रा का द्वितीय भाग आप सभी के सामने प्रस्तुत कर रहा हूं, मां सरस्वती की अनुकंपा व गुरुवर के आशीर्वाद से ही इन लेखों को लिख पाता हूं।
आप सभी का आशीर्वाद व आप जो भी मेरे लेख पढ़ रहे हैं, वह सभी पाठकगण मेरी शक्ति है, वह मुझे प्रेरणा प्रदान करते हैं कि आगे से आगे और लेख लिख सकूं। पुनः विषय पर आते हैं, अंतर्यात्रा प्रथम में अपने आप को, अपने लक्ष्य को पहचानने की बात कही थी।
आइए विचार श्रंखला को आगे बढ़ाते हैं, सोचे मानव जीवन जो हमें प्राप्त हुआ है, वह कितना सुंदर है क्या आपने चिड़िया को चहचहाते सुना है, तितलियां कैसे उन्मुक्त भाव से पुष्प के मकरंद का पान करती है, क्या कभी हमने वन्यजीवों का अध्ययन किया है, जब इन वन्यजीवों की भी पूर्ति हुआ करती है, क्या ईश्वर या प्रकृति इन्हे इनका अंश प्रदान नहीं करती, फिर क्यों मानव हो कर भी हम मनुष्यता का इतना सा भी पाठ नहीं सीख पाते हैं कि लौटकर तो वही आता है, जो हम प्रदान करते हैं।
प्रकृति के इस अनूठे रहस्य को समझने के लिए हम एक उदाहरण से समझना होगा जैसे एक बीज में ही वृक्ष छुपा है वैसे ही हम सभी में बीज रूप में कहीं ना कहीं मानव व महामानव बनने की पूर्णता विद्यमान है। आवश्यकता हमारे भीतर के उन सोए हुए स्पंदनों को जगाने की, उस परमपिता से प्रार्थना करने की कि वह मनुष्य मात्र में उसके देवत्व को जगा दे। देव कौन है, जो देते हैं तो हम भी देव बने, उसका अनुसरण करें।
विचार से, भाव से, धन से जिस प्रकार भी हो अच्छे भाव संवर्धन को जीवन में स्थान देना प्रारंभ करें। शुरुआत में आपको यह प्रक्रिया थोड़ी सी कठिन अवश्य लगेगी क्योंकि हमारा लालच इस प्रक्रिया में बाधा बनकर उपस्थित होता है।
रुक कर अपने आप को पुनः देखें कहां-कहां हमसे जन्मदिन जीवन में चूक हो रही है। समय को खोना उन चूको में से सबसे बड़ी चूक है। गया हुआ कल लौटाने की क्षमता किसी में भी नहीं है।आत्मावलोकन प्रारंभ करें, जीवन को एक व्यवस्था प्रदान करें यदि आपका जीवन एक व्यवस्थित क्रम से चलता है तो आप तो खुश रहेंगे। आपके साथ रहने वाले भी खुश रहेंगे, अस्तव्यस्त विचार व जीवन शैली हमें भी अस्तव्यस्त कर देती है।
पुनः जो भी मेरे लेख पढ़ रहे हैं युवा, बुजुर्ग, प्रशासनिक, अधिकारी, राजनेता, बुद्धिजीवी सभी से विनम्र निवेदन है, बगैर किसी पूर्वाग्रह के मेरे लेखों को पढ़े व विचार अवश्य करें।
समाज को हमारी देन क्या है, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से जो हो रहा है, उसके प्रति क्या हमारी सतर्क दृष्टि है अथवा नहीं। क्या संस्कृति की जड़े हम अनजाने में ही कमजोर तो नहीं कर रहे हैं।
भावी पीढ़ी को हमारी संस्कृति के मूल भाव "सर्वे भवंतु सुखिना, सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मां कश्चित् दुख भाग भवेत।" से उनका परिचय कराना हमारा कर्त्तव्य नहीं हैं, उन्हें धन के अलावा एक अच्छा विश्व नागरिक बनने के लिए प्रेरणा प्रदान करना हमारा दायित्व नहीं है।
शेष अगली कड़ी में।
विशेष = अंतर्यात्रा के इस धारा प्रवाह लेख में मेरा जो भी ज्ञान, निजी अनुभव व हमारी सांस्कृतिक ग्रंथों से जो मुझे अनुभूति होती है, वह आप सभी को पहुंचाना मुझे समाज के प्रति मेरा नैतिक दायित्व जान पड़ता है। आप भी जब अंतर्यात्रा करेंगे, जीवन के मूल उद्देश्य से आप अवश्य परिचित हो जाएंगे। पुनः धन्यवाद आप सभी पाठक गणों का, अभिवादन सभी का जो मुझे निरंतर ब्लॉक पर पढ़ रहे हैं।
आपका अपना,
सुनील शर्मा।
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें