अपने ही हक की रोटी खाता हूं।
श्रम से कभी जी नहीं चुराता ,
हर पल नए आयामों को मै गढ़ता,
श्रम ही देवता मेरा, परिश्रम से कभी ना घबराया
मेरे बिना कल कारखाने ना चलते,
खेती-बाड़ी का कार्य भी ना हो पाता।
कोई मकान बनाता आलीशान,
उसमें भी मैं अपनी भूमिका निभाता।
फिर भी मेरे श्रम का उचित हक भी मुझे न
मिल पाता, हां, मैं मजदूर हूं।
कई गाथाएं लिखी गई है बड़े-बड़े नायकों पर,।
लेकिन किसी भी काल में मजदूर ना होते ,
तो वैभव उस काल का कैसे लहलहाता।
हां, मैं मांडव की इमारत में, लाल किले में, ताजमहल में,
कुतुबमीनार में, मिस्र के पिरामिड में,
मंदिरों के आलीशान वैभव में, हर सभ्यता की नीव में,
मेरे श्रम से ही वे बनी, जीवंत कला उनमें हो उठी।
इतिहास भी मुझसे रोशन, वर्तमान भी, भविष्य भी मुझसे है।
मेरा भी अपना अस्तित्व है, मेरे बिना सब कुछ अधूरा, मेरे श्रम बिना ना कुछ होता पूरा,
हां ,मैं मजदूर हूं।
अपने कंधों पर कई सभ्यताओं का बोझ लिये,
हर काल में अनेक विषमताओं को सहते हुए,
फिर भी मैं जीवित हूं अपने श्रम से, कालजयी है महिमा मेरी।
हां ,मैं मजदूर हूं
विशेष:-जब से यह विश्व बना है, मजदूरों के बगैर,
उनके श्रम के बिना कोई भी कार्य पूरा नहीं हो सकता, फिर भी भी उपेक्षा के शिकार होते हैं, उनकी इसी पीड़ा को काव्य रूप में कहने की एक छोटी सी कोशिश की है। आशा है ,इस काव्य को पढ़ने के बाद सभी लोगों को उनके श्रम की महत्ता समझ आ सकेगी।
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