सादर वंदन,
आज हमारी परिचर्चा का विषय है स्वहित व परहित, रामायण
मैं एक चौपाई सुनते आ रहे हैं,
परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।
इसका मूल अर्थ है दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं व दूसरों को किसी भी प्रकार की पीड़ा पहुंचाने के समान कोई पाप नहीं।
दैनिक जीवन में हम कई बार शब्दों का प्रयोग करते हैं, वे शब्द हम किस प्रकार उनका प्रयोग करते हैं, वैसा ही परिणाम हमें देते हैं।
परहित का चिंतन अवश्य करना चाहिये, पर वर्तमान समय घोर कलिकाल है, अतः स्वहित को साधते हुए परहित भी हम किस प्रकार कर सके, यही वर्तमान समय में उचित संयोजन जान पड़ता है।
हमारे परिवार के लिये जो मूलभूत आवश्यकताएं हैं, उनकी परिपूर्ति के उपरांत हम इस बात का भी अवश्य चिंतन करें,
हम सभी सामाजिक प्राणी है, जहां पर भी हम रहते हैं, उस घर के प्रति हमारी सर्वाधिक जिम्मेवारी है, उसे सही ढंग से पूर्ण करने के उपरांत हम अपने जीवन का कुछ समय समाज को भी अवश्य दें,
चाहे वह विद्यादान के रूप में हो, द्रव्य के अंशदान के रूप में हो, निस्वार्थ भाव से परिचर्चा हो, इस प्रकार की गतिविधि से हम नियम पूर्वक जुड़े।
इससे हमारे जीवन में मानसिक शांति की स्थापना होगी, हम अपने जीवन काल में सब सुखों को भोगते हुए भी परमपिता परमेश्वर के चरणों में वंदन करते हुए समस्त सुख जो हमें प्राप्त हुए हैं, उसके लिए उसका हृदय से वंदन करते रहें।
स्वहित व परहित दोनों का ही सुंदर समायोजन अगर हम अपने जीवन काल में कर सके तो इसी जीवन में हम स्वर्ग या मोक्ष पा सकते हैं, निर्वाण पा सकते हैं।
हम चिंतन की धारा को बदलें और आंतरिक परिवर्तन जैसे ही हम करेंगे, एक अलग ही अनुभूति हमें भीतर से प्राप्त होगी।
विशेष:-हम इसी जीवन काल में स्वहित व परहित का सुंदर संयोजन अगर कर सके यहीं पर हम स्वर्ग का निर्माण कर सकते हैं, दृष्टि बदले, सृष्टि स्वयं बदल जायेगी।
आपका अपना
सुनील शर्मा
जय हिंद
जय भारत।
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